गुरुवार, 7 नवंबर 2013

शोर जो उगे हैं कुछ उन्हें निकाल रहा हूँ

(फोटो गूगल से साभार)


हल गाड़ दिया जमीन में
कुछ संकल्प उठा रहा हूँ 
शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ
जो आतंकित करते हैं
खा जाते हैं
शुकून के फसल को
उन्हें जलाने की
तैयारी किए जा रहा हूँ

जख्म पर नमक
क्यूँ छिड़कते हैं लोग
नफरत का खेल कैसा
आज खेलते हैं लोग
जो ठान लिया है
मरहम लगाने कि
मरहम लगा रहा हूँ
नफरत का एक पेड़ काटा है अभी
प्रेम का पौधा इक लगा रहा हूँ

शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ

कतरा कतरा पसीने का
बहुत है कीमती 
मगर हवा कुछ बदली है ऐसी 
अब यह मोती
देखने को नहीं मिलती
जो हवाओं की कब मानी है
आज कहीं बैठा
बस पसीना बहा रहा हूँ

शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ





शुक्रवार, 25 अक्तूबर 2013

भीगा एक चाँद

(फोटो गूगल से साभार)
 
 
 
भीगा एक चाँद, डूबा हुआ ताल में  
उसे निकाल लिया 
और फिर सुबह की धूप में 
संग उसे बिठा लिया 

ठंढी धूप बह चली 
महक उठी हर गली 
बदला हर नजारा है 
खिल उठी मुरझाई कली 

भीगा चाँद 
हर किसी को कहाँ नसीब होता है 
भीगी मुस्कराहट लिए 
हर कोई बस कहीं भीग रहा होता है 

मेरी खुशनसीबी है 
भीगा चाँद आज मेरे पास है 
मैं अपनी फकीरी पर क्यूँ रोऊँ 
कुछ नहीं, पर सबकुछ मेरे पास है 

रात तकिये के सिराहने 
रख चाँद मैं सो गया 
जो उठा, तो मिला एक आसमां 
और भोर हो गया 



बुधवार, 28 अगस्त 2013

कहाँ गई उस तरु की हरियाली






कुछ दिन पहले झूम रहा था
जाने क्या हुआ अब उसको
उसके मन की करुण दशा
भला बताए जाकर किसको
सूखे मुरझाए हैं पत्ते, सूखी हर डाली डाली
कहाँ गई उस तरु की हरियाली


गर्मी के गरम थपेड़े
कितनी बार उसने है झेले
सर्दी की ठंढ हवाएँ
झेला हंसकर दृढ अकेले
पर अम्बर में है अब, जब छाई बदरी काली
कहाँ गई उस तरु की हरियाली


उत्सव मना रहा हर कोई
फिर क्यूँ वह शांत पड़ा है
ना जाने किस दर्द की पीड़ा
मूक हुआ वह ठूंठ खड़ा है
कारण उदासी का उसकी , नहीं जानता उसका माली
कहाँ गई उस तरु की हरियाली


देखकर उसकी वेदना
क्या दुखी है कोई और
संग नहीं अभी कोई उसके
यह जीवन का कैसा दौर   
पूछ रहा यह प्रश्न खुद ही से, खुद व्यथित तरु की डाली 
कहाँ गई उस तरु की हरियाली 




शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

वो माँ की आँखें थी

(फोटो गूगल से साभार)


तैर गए बादल उन आँखों में
वो माँ की आँखें थी 


कुछ आशाओं के टुकड़े
बहते हुए
पूरा आसमां घूमकर
उन आँखों में ठहर गए
और बरस पड़े
दुआ बनकर
अपने लाडले के लिए
वो सागर भरी आँखें माँ की थी 


अच्छी लगती है परेशानी
कभी कभी 
आरी तिरछी सिलवटों के संग 
देखकर माथे पर 
जो वस्तुतः उभरी होती हैं  
दुआएँ बनकर 
माँ के माथे पर   
वो माथे पर सिलवटें लिए एक चेहरा माँ का था 


परेशानी और सिलवटों का 
वह रूप बदल गया 
विश्वास लाडले पर अपने 
एक दुआ बन बरस गया 
और भीगो गया
ममता की धरा 
खिला गया फूल मुस्कराहट के 
एक बार फिर से 
और मुस्कुरा उठा चेहरा 
भीगे आँसूओं के ऊपर 
वो ममतामयी मुस्कान एक माँ की थी


हाँ वो माँ की आँखें थी
जिन आँखों में बादल तैरा था 







सोमवार, 19 अगस्त 2013

बंद लिफ़ाफ़े में फिर तेरी राखी आयी है


(फोटो गूगल से साभार)


बंद लिफ़ाफ़े में फिर
तेरी राखी आयी है 
चन्दन रोली अक्षत 
खुशबू प्रेम की लायी है 

राखी की रस्में सारी 
सब याद फिर हो आयी हैं 
रस्मों संग छुपे स्नेह की
फिर एक गंगा बह आयी ही 

वो थाली आरती की 
आँखों में सज आयी है 
और दुआएँ माथा चूमे 
जो संग लिफाफे आयी है 

अटूट बंधन बाँधे  
रेशम की दो डोर 
बंधे कलाई पर जब भी 
हो जीवन में भोर 

जीवन की वो भोर 
संग लिफ़ाफ़े आयी है 
सच में प्यारी बहना का 
बड़ा खुशकिस्मत यह भाई है 




आप सभी को रक्षाबंधन पर्व के इस शुभ अवसर पर हार्दिक शुभकामनाएँ !!





गुरुवार, 15 अगस्त 2013

गीत : भला ऐसे देश पर क्यों ना नाज करे हम

(फोटो गूगल से साभार)


जहाँ हवाओं में घुली 
वीरों की गाथाएँ 
जहाँ हर बालक महाराणा 
और लक्ष्मीबाई सी बालाएँ 
जहाँ शेर के मुँह में हाथ डालकर 
नन्हा कोई उसकी दाँते गिन जाए 
भला ऐसे देश पर 
क्यों ना मान करे हम 
अभिमान करें हम 
जय भारत माता 
जय जय भारत माता 

जहाँ खुद भगवान ने जन्म लिया 
और दुष्टों का संहार किया 
जहाँ नदियाँ पूजी जाती हैं 
और गौ भी माता कहलाती है 
जहाँ सभ्यता और संस्कृति 
दुनियाँ को राह दिखाए 
भला ऐसे देश पर 
क्यों ना मान करे हम 
अभिमान करें हम 
जय भारत माता 
जय जय भारत माता 

जहाँ दुश्मनों ने जब भी 
भारत माता को ललकारा है 
बढ़कर आगे तब हमने 
उनकी छाती में तिरंगा गाड़ा है 
ऐसे वीर सपूतों पर 
जहाँ हर माँ वारी जाए 
भला ऐसे देश पर 
क्यों ना मान करे हम 
अभिमान करें हम 
जय भारत माता 
जय जय भारत माता 


स्वतंत्रता दिवस की आपसबों को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएँ !!



रविवार, 4 अगस्त 2013

क्या वह जमीन मुमकिन है ?








मैं कब मांगता हूँ
 पूरा आकाश
 बस मांगता हूँ
 थोड़ी सी जमीन 

जमीन जहाँ
मैं थोड़ी खुशियों की
खेती कर सकूँ
जहाँ रात को
चाँद की थोड़ी रौशनी
समेट सकूँ
और उस रौशनी में नहाता हो
एक छोटा सा घर
जो ईंट पत्थरों से नहीं
मिट्टी और खर से बना हो
जहाँ केवल सोंधी मिटटी की खुशबू
घुली हो हवाओं में
और उन हवाओं में मैं
शुकून की थोड़ी
ठंढी सांस ले सकूँ 

जहाँ कुछ भी
कृत्रिम ना हो
बनावटी ना हो
हर चीज प्रकृति के निकट
इस कृत्रिमता और बनावटीपन ने
उलझा रखा है मुझे 
कैद कर लिया है कहीं मुझे
मेरे ही अन्दर 

कब मुक्त होऊंगा मैं
और कब मिलेगी मुझे
 मेरे सपनों की
वह जमीन
क्या वह जमीन बस एक स्वप्न भर है ? 
क्या वह जमीन मुमकिन है ?

बिन जमीन
भौतिकताओं में बंधा
प्रश्न अब भी खड़ा  
अनुत्तरित
स्वप्न और हकीकत के बीच


@फोटो : गूगल से साभार 

सोमवार, 29 जुलाई 2013

खाली पड़ा कैनवास





उस खाली पड़े कैनवास  पर 
हर रोज सोचता हूँ 
एक तस्वीर उकेरूँ 
कुछ ऐसे रंग भरूँ 
जो अद्वितीय हो 
पर कौन सी तस्वीर बनाऊँ 
जो हो अलग सबसे हटकर 
अद्वितीय और अनोखी
इसी सोच में बस गुम हो जाता हूँ 
ब्रश और रंग लिए हाथों में 
पर उस तस्वीर की तस्वीर 
नहीं उतरती मेरे मन में 
जो उतार सकूँ कैनवास पर 
वह रिक्त पड़ा कैनवास 
बस ताकता रहता है मुझे हर वक्त 
एक खामोश प्रश्न लिए 
और मैं 
मैं ढूँढने लगता हूँ जवाब
पर जवाब ...
जवाब अभी तक मिला नहीं 
तस्वीर अभी तक उतरी नहीं 
मेरे मन में 
और वह खाली पड़ा कैनवास 
आज भी देख रहा है मुझे 
अपनी सूनी आँखों में खामोशी लिए  





@फोटो : गूगल से साभार

शुक्रवार, 12 जुलाई 2013

हर्षित मन मना रहा बूँदों का त्योहार





पुलकित आनंदित अंतर्मन
देख रहा कोई दर्पण
विकार रहित हुआ जाता है 
खुल रहा मन का बंधन 
व्याकुल मन की व्यथाएँ चली व्योम के पार 
हर्षित मन मना रहा बूँदों का त्योहार  


अभिलाषाएँ कुछ दबी हुई 
जाग गयी, थीं सोयी हुई 
उल्लासित आँखें जागती हैं  
तरुण हृदय संग बंधी हुई 
खोल गया हो जैसे कोई बंद हृदय के द्वार 
हर्षित मन मना रहा बूँदों का त्योहार


विस्मृत यादें फिर झूमी 
नाच रही संग रंगभूमि
उन्मुक्त भाव संग झूम रहे  
ज्यों घुंघरू बाँध कोई बाला झूमी     
सूनी साजों पर कोई छेड़ गया फिर मन का तार 
हर्षित मन मना रहा बूँदों का त्योहार





@फोटो:  गूगल से साभार

रविवार, 7 जुलाई 2013

धूप और छाँव







जो चुनना हो 
धूप और छाँव में 
चुनूँगा धूप 
क्यूँकी छाँव ....
छाँव तो मिथ्या है 
बहरुपी है


मगर धूप 
धूप का रूप नहीं 
अरूप है 
सत्य है धूप का अस्तित्व 
वह रूप नहीं बदलती


धूप जीवन 
भरती है 
पेड़ों में 
पौधों में 
फसलों में
धरा का कण कण 
होता पोषित 
धूप से 


जिसने धूप स्वीकारा 
फला फूला
और जो बैठा रहा 
छाँव तले  
उसे क्या मिला ! 
  

सच कहूँ तो 
धूप उतनी ही सच्ची है 
जितना संघर्ष 
और छाँव उतनी ही मिथ्या 
जितना सुख 




@फोटो:  गूगल से साभार 
 

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