मंगलवार, 5 जुलाई 2011

मौन तोड़ ना सका


मौन तोड़ ना सका
कुछ बोल ना सका
अंगराई लेती
उथल पुथल मचाती
संवेदनाएँ, भावनाएँ
बनकर आँसू
नयनों से गिर पड़े
मिल धूल धरा में
खोते अपने अस्तित्व को
फिर बोल पड़े
" जिंदा रहूँ तुझमें
मेरी अभिलाषा है
एक दरिया तेरे अंदर
फिर भी क्यूँ प्यासा है
हो सके तो, अगली बार
मौन तोड़ना
बोलना, कुछ जरुर बोलना "

मंगलवार, 14 जून 2011

गोरैया : एक संस्मरण

(फोटो गूगल से साभार)
बात उन दिनों की है जब मैं करीब १३ साल का होऊँगा । हमारे यहाँ घरों में अक्सर गोरैया (एक पक्षी) अपना घोंसला बना लेती है । मेरे घर में भी गोरैया का एक ऐसा ही घोंसला था । उसमे गोरैया का एक जोड़ा रहा करता था । उन्हें घोंसले में आते जाते देखना अच्छा लगता था । घोंसले में गोरैया का एक नवजात बच्चा भी था  । जब कभी गोरैया अपने बच्चे  के लिए बाहर से कड़ी मेहनत कर अनाज के कुछ दाने लाते थे  तब उनकी चहचहाहट से माहौल खुशनुमा हो जाया करता था । मैं और मेरा छोटा भाई दोनों अक्सर देखा करते थे इस दृश्य को । गोरैया के जोड़े अपने चोंच से दाना उठा उठाकर अपने बच्चे के मुँह में रखा करते थे । बहुत ही सुन्दर और आत्मीय दृश्य होता था वह । कुल मिलाकर एक छोटा मगर हँसता - खेलता परिवार था गोरैया का ।

पर कहते हैं न कि अनहोनी आपके आसपास हमेशा मंडराती रहती है । ऐसा ही कुछ हुआ उस गोरैया परिवार के साथ। बात यह थी कि जिस कमरे में उन्होंने अपना घोंसला बनाया था उसमें एक पंखा टंगा हुआ था । हालांकि हमलोग अक्सर इस बात का ध्यान रखा करते थे कि जब कभी वो कमरे में हों , पंखा बंद रहे । पर शायद होनी को कौन टाल सकता है । उस गोरैया माता-पिता में से एक उस पंखे कि चपेट में आ गया । और वहीं उसने अपने प्राण त्याग दिए, अपने पीछे एक छोटा सा संसार छोड़कर । हमने सुबह उसके निर्जीव शरीर को देखा और काफी दुखित हुए ।
उस घटना के बाद से हमलोग (मैं और मेरा छोटा भाई) तनहा अकेले बचे उस गोरैया और उसके बच्चे की गतिविधियों पर ध्यान रखने लगे । हम भी उनके दुःख में शामिल थे पर ना तो हम उन्हें सांत्वना दे सकते थे और ना ही अपनी संवेदना उनके सामने प्रकट कर सकते थे । हमलोग अक्सर नीचे बिछावन पर बैठकर उनके घोंसले की ओर देखा करते थे , जहाँ से वो गोरैया भी हमें देखा करती थी , आँखों में एक सवाल लिए जिसका जवाब शायद किसी के पास नहीं था ।

कुछ दिन इसी तरह बीतता गया । पर एक दिन ना जाने क्या हुआ , गोरैया कमरे में नहीं आई । गोरैया के उस नवजात बच्चे की तरह , हमलोग भी उसके आने का इन्तजार कर रहे थे । रात बीत गया .... सुबह हो गई ... पर वो नहीं आई । बच्चा भूख से छटपटा रहा  था जो कि उसके करुण आवाज़ में सहज ही प्रकट होता था । उसकी इस छटपटाहट के साथ हमारे मन में भी आशंकाओं की सुनामी उठने लगी थी । हमलोग इस सोच में पड़े थे कि आखिर क्या हुआ जो वह नहीं आई । हमसे उसकी भूख बर्दाश्त नहीं हो रही थी ।

हमलोगों ने शाम तक गोरैया का इन्तजार किया पर वह नहीं आई । अंततः हमदोनों ने गोरैया के बच्चे को खुद से ही दाना खिलाने की सोची । हमने घर में बने चावल के कुछ दाने लिए और उनके घोंसले में रख दिया , एक छोटी सी कटोरी में रखकर । कुछ देर बाद जब हमने मुआयना किया तो देखा कि सारे चावल के दाने ज्यों के त्यों पड़े थे। हम बहुत उदास हुए । हमें ऐसा लगा के शायद वो हमारे हाथ का दिया दाना नहीं खाना चाहते थे । फिर हमें ध्यान आया कि अभी तो वह नवजात है और खुद  दाना नहीं चुग सकता है । तभी तो उसके माता-पिता अपनी चोंच से दाना उसके मुँह में डालते थे । तब हमने अपने हाथों से एक एक दाना लेकर उनके मुँह में डालना शुरू किया । और वह उसे सप्रेम स्वीकार करता गया । आखिर उसे भूख भी तो लगी थी .... । उसके कोमल चोंच जब हमारे हाथों कि उँगलियों को स्पर्श करते थे तो एक सुखद आनंद की अनुभूति होती थी । कुछ ही दिनों में हमारा उसका संबंध बहुत आत्मीय हो गया था । हमें ऐसा लगता था कि हमने भाषायी सीमाओं को तोड़ दिया है और मनुष्य एवं पक्षी के बीच की खाई को भी पाट दिया है । उसकी आँखें हमारे लिए भाषा और अभिव्यक्ति का माध्यम बन गई थीं । उसकी चहचहाहट काफी कुछ बयां कर देती थी | तब समझ में आया की संबंधों में भाषायी विविधता कोई बड़ी समस्या नहीं है , बस आत्मीयता होनी चाहिए , प्रेम होना चाहिए । पर आज मनुष्यों के बीच शायद इसका अभाव है ।


(फोटो गूगल से साभार)
इसी तरह दिन बीतता गया । हम उन्हें रोज दाना खिलाया करते थे , अपने हाथों से ।  हमें एक डर भी था कि कहीं वह गलती से ऊपर बने उस घोंसले से नीचे ना गिर जाए । हालाँकि ऐसी संभावना कम ही थी लेकिन फिर भी हमने खुद से उसके  लिए एक अलग घोंसला बनाया, घास-फूस और पत्तों से पूरी तरह से सुरक्षित । हमने घोंसले को एक चारों तरफ से बंद तथा ऊपर से खुले काठ के एक बक्से में रखकर उसमें उन बच्चों को रख दिया । अब वह सुरक्षित था  और हम निश्चिन्त .... । हम निश्चिन्त थे कि अब वो गिर नहीं सकता था ।  अब तो वो जब भी हमें देखता था बस चहकना शुरू कर देता था । फिर एक दिन कुछ ऐसा हुआ जिसे देखकर हमारी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा । हुआ यह कि वह घोंसले से बाहर निकलकर कमरे में इधर - उधर फुदक रहा था । वह उड़ने की कोशिश कर रहा था । हमने भी उसके उड़ान भरने के प्रयास में अपने स्तर से सहयोग किया । हालांकि अभी वह छोटी - छोटी उड़ाने ही भरता था पर वह हमारे लिए सुकुनकारक एवं आनंदकारी था , आखिर उसने उड़ने की कोशिश जो शुरू कर दी थी । हम काफी खुश थे .... ।

फिर एक दिन आया जब उसने लम्बी उड़ान भरी और उड़कर हमारे घर के बाहर एक आम की डाली पर जा बैठा । बहुत अच्छा लग रहा था .... । खुशी हुई पर एक दुःख भी था मन में कि आज वह हमें छोड़कर अपनी दुनिया में जा रहा था । तब उसकी आँखों में दूर से ही देखा था  हमने , हमारे लिए आत्मीय प्रेम को .......... और एक वादा ........ फिर से मिलने का ....... ।

बुधवार, 25 मई 2011

आज फिर से ....



अरसों बाद आज
प्यारी सी डाँट किसी ने लगायी है
तवे पर सिंकी रोटी मीठी
कई दिनों बाद खायी है

फिर से मीठा दही गुड़ चखा
भगवत चरणों के फूल जेब में रखा
माथे पर आशीर्वाद का टीका
आज फिर किसी ने लगाया है
अपने कोमल हाथों से
मेरे माथे को सहलाया है


थके धूप से विरक्त हुआ
आज मिला फिर शीतल छाँव
कितने दिनों बाद दिख रहा सुन्दर
मेरा प्यारा अपना गाँव

आज उन्मुक्त स्वछंद
लिटा गोद में मन को , बस खोया हूँ
अरसों बाद
हाँ, अरसों बाद आज चैन से सोया हूँ

आज हवाओं में फिर
वही सौंधी खुशबू छायी है
कितनी अच्छी लग रही
मंद-मंद पुरवाई  है 
आज रात सपने में
मेरी माँ आई है
हाँ, आज रात सपने में
मेरी माँ आई है

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया

शीर्षक :  आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया

लोकल ट्रेन अपनी धुन में चली जा रही थी |  अपनी सीट पर बैठे हिमेश कुछ सोच रहा था |  उसके हाथ में एक लेटर था जिसे वह कभी - कभी खोल कर पढ़ लेता था और फिर कुछ सोचने लगता था |  आज उसकी नजरें भी ट्रेन पे चिपके उस पोस्टर पर जा जा कर ठहर जाती थी जिसपे लिखा था  "घर बैठे कमाइए १२ से १५ हजार " (ऐसे पोस्टर आपको मुंबई जैसे मेट्रो सिटी में बहुत जगह मिल जाएँगे) |  रोज की तरह वह ट्रेन से उतरा और रूम के लिए चल पडा |
हिमेश रूम पे पहुँचा तब उसके हाथ में लेटर देखकर अमरीश पूछ बैठा  " ये तेरे हाथ में क्या है !" 
हिमेश ने बड़ी शांति से कहा  "वही लव लेटर है , ऑफिस की तरफ से  "  
"लव लेटर ! वो भी ऑफिस की तरफ से |  मजाक मत कर ला दिखा क्या है "
"हाँ, हाँ देख ले , तुझे भी ये मिल ही जाएगी १-२ दिन में " ऐसा कहते हुए हिमेश  ने लेटर उसके हाथ में थमा दिया |
(वस्तुतः हिमेश और अमरीश एक ही ऑफिस के दो अलग अलग ब्रांचों में काम करते हैं , और दोनों एक साथ ऑफिस के दिए बैचलर्स रूम में रहते हैं |)

लेटर पढ़कर अमरीश भी थोड़ी देर के लिए शांत हो गया | 
"ऐसा कैसे होगा , एक तो हमारी सैलरी कम है , ऊपर से ये इतना पैसा रूम के किराए के तौर पे काट लेंगे , तो फिर हमारे पास बचेगा क्या !"
(वस्तुतः उस लेटर में किराए बढ़ने की बात थी , पहले उन्हें काफी कम किराया देना पड़ता था , सो वो बड़े आराम से मस्ती में रह रहे थे, हालांकि उनकी सैलरी कम थी पर किराया कम कटने की वजह से उन्हें प्रॉब्लम नहीं होती थी  )
"यार , हम ये रूम छोड़ देते हैं और कहीं और देखते हैं "
"तेरे पास डिपोजिट के पैसे हैं , रूम छोड़ने में कोई दिक्कत नहीं है पर नए रूम के लिए डिपोजिट भी तो भरना पड़ेगा ! " (हिमेश ने कहा )
(मुंबई जैसे शहर में आपको किराए के रूम में रहने के लिए पहले अच्छी खासी रकम डिपोजिट के तौर पे जमा करनी होती  है )
दोनों इस मुद्दे पर सोच विचार कर रहे थे की आखिर वो क्या करें .....
हिमेश ने कहा " मैंने , कुछ नंबर (मोबाइल के ) नोट किये हैं , पार्ट टाइम जॉब के लिए |  मैं सोचता हूँ बात करनी चाहिए "
अमरीश ने उसकी तरफ देखा "ये सब भी सही नहीं होते हैं, ऐसे ही बोलते कुछ हैं , करवाते कुछ और हैं |  तुम जैसा सोच रहे हो उतना आसन नहीं है पार्ट टाइम जॉब करना "
हिमेश ने कहा "तो फिर क्या करें "
"कुछ नहीं चल बैठकर टीवी देखते हैं , टेंशन लेने से कुछ नहीं होने वाला |  वैसे भी कहते हैं न की 'चिंता चिता के सामान है ' "
दोनों टीवी देखने बैठ गए |  टीवी पर गाना आ रहा था....

"एक अकेला इस शहर में, रात में और दोपहर में
आबोदाना ढूँढता है , आशियाना ढूँढता है  ................"

दोनों बस शांत बैठे गाने का आनंद ले रहे थे, बिना किसी टेंशन के  ................... !!



सोमवार, 18 अप्रैल 2011

भीगे शब्द



शीर्षक : भीगे शब्द 

भीगे गीले शब्द
जिन्हें मैं छोड़ चुका था
हर रिश्ते नाते
जिनसे मैं तोड़ चुका था

सोचा था कि
अब नहीं आऊँगा उनके हाथ
पर आज महफ़िल जमाए बैठा हूँ
फिर से
भीगी रात में
उन्हीं भीगे शब्दों के साथ

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2011

नया सवेरा (आदरणीय अन्ना हजारे के समर्थन में )


आज के भ्रष्टाचारी नेताओं का मूलमंत्र :

"भ्रष्टाचार - भ्रष्टाचार
नेताओं का जन्मसिद्ध अधिकार
मूलमंत्र महामंत्र
स्वाहा - स्वाहा प्रजातंत्र

सरकारी खजाने की लूट में
लूट सको सो लूट
अंत काल पछताएगा
जब कुर्सी जाएगा छूट "

पर आज के नवभारत के "गाँधी" (आदरणीय अन्ना हजारे ) और उनके साथ कदम से कदम मिलाकर
चल रहे लाखों-करोड़ों लोगों का महामंत्र :

"भ्रष्टाचार - भ्रष्टाचार
अब सहने को नहीं हम तैयार
मूलमंत्र महामंत्र
तेरी जय हो जय हो प्रजातंत्र

जनशक्ति का जला मशाल
भ्रष्टाचार का अँधियारा भगाना है
भ्रष्टाचार मुक्त भारत हो
ऐसा नया सवेरा लाना है "

|| जय हिंद , जय भारत , जय लोकतंत्र ||

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