गुरुवार, 31 मई 2012

मुस्कुराती 'बेबसी'


(फोटो गूगल से साभार)
 
चिथरों में लिपटी
दिखती है हर रोज 'वो'
कि भीगोती है सर्द हवाएँ
हर रात उसे

नयन कोर पर
'बेबसी' मुस्कुराती है
चेहरे की मुस्कराहट
बेबसी छुपा जाती है

छिड़ी है 'जद्दोजहद'
खुद से लड़ने की
समेटे खुद को खुद में 
मुक्त आसमां के नीचे
धरा पर बिखरने की

बादल झूमे
सावन के उर में
पर सूखी हर तृष्णा 
दिल के अंदर
'अकाल'  पोषित हो रहा
प्यासा है वो 'भीत' समंदर

'वो' चीखती, चिल्लाती है
हर रोज कई बार
पर सुनता कौन है
देख लो 'तमाशा' यह
यहाँ हर कोई 'मौन' है

रविवार, 13 मई 2012

यहीं कहीं पर है मेरा गाँव

(फोटो गूगल से साभार)
हाँ, जरा रुकना यहाँ
यहीं कहीं पर है मेरा गाँव
एक पीपल का पेड़ होगा बड़ा
बड़े घने हैं जिसके छाँव

एक तालाब है
जहाँ मजे में होंगे कुछ बच्चे
ढूँढना शायद
मिल जाऊँ 'मैं' उनमें कहीं

वो 'हरिया' होगा
गायों को चराता हुआ
और कुछ बछड़ों
को हाँककर भगाता हुआ
जरा देखना उसे

रुकना देखना
एक 'आलीशान बँगला' होगा
गाँव में अकेला खड़ा
सन्नाटों से घिरा
ऊँचाइयों से देखता हुआ
गाँव के छोटे छोटे घरों को

'सुखिया' ताई होगी
अपने घर के बाहर
बैठी हुई, भुट्टे जलाती हुई
खेलता हुआ  'बचपन'
चेहरे पर हर वक्त
'झुर्रियों' को छुपाई हुई

'चौपाल' लगता है जहाँ
शाम के बाद
जहाँ 'अब्दुल' काका
'हरविंदर' ताऊ
और कई मिलकर
कुछ तो बजाते मिल जाएँगे
गम की पीठ पर थपथपाते
                                                  कुछ गीत गाते मिल जाएँगे

                                                        एक झोपड़ा होगा
मिट्टी से लिपी हुई दीवारें होंगी जिसकी
कुछ अजीब सी तस्वीरें बनी हुई
और बाहर दरवाजे पर
एक गाय और उसका बछड़ा होगा
शाम को दीप जलाती
तुलसी चौरा के पास
जहाँ कोई 'माँ' होगी
और पास ही खड़ा
एक बच्चा होगा 'मासूम' सा
'आवाज' लगाना उसे
शायद 'मैं' मिल जाऊँ

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