सोमवार, 28 अगस्त 2017

जमाना जिसके लिए आज मूक बधिर है

(फोटो गूगल से साभार)

हाथ में एक तस्वीर है
चेहरे पर जिसके 
आरी तिरछी लकीर है 

गड्ढे हैं आँखों के नीचे
उन गड्ढों में तैरता 
कोई छंद है 
आँखों से निकल कर 
एक कविता बह रही है 
फटे चीटे कपड़े बदन पर
दिल में कोई जख्म है, पीर है
शाम की विश्राम करती राहों पर
चल रहा कोई फ़कीर है

अँधेरा होने को है 
चाँद निकाला है उसने
अपने बाईं तरफ वाली 
ऊपरी जेब से
रख लिया है हाथों में
दर्द की तनहा रातों में 
गीत गाता हुआ
तोड़ रहा  
ख़ामोशी की जंजीर है 
पर ना जाने क्यूँ  
जमाना जिसके लिए 
आज मूक बधिर है 

हाथ में एक तस्वीर है
चेहरे पर जिसके 
आरी तिरछी लकीर है !

शुक्रवार, 4 अगस्त 2017

जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे

(फोटो गूगल से साभार) 


लगा सुनाने बारिश का पानी
भीत छुपी थी कोई कहानी
बहने लगा है संग संग जिसके
यादें जो हो चुकी पुरानी
छप्पक छईं पानी में उतरा कोई  
लौट आई फिर अल्हड़ जवानी 
रूठे पिया को चला मनाने, भीग रहा मन मीत वही ढूंढें 
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 

धमक धमक बादल हैं गरजे
चमक चमक बिजली है चमके
काली चादर ओढ़े अम्बर
खोल रहीं हैं मन की परतें 
सिली सिली सी दिल की अंगराई
चेहरे पर इक मुस्कान है लाई
पिया के होने का अहसास, धरती अम्बर इक डोर में गूंदे   
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 


डाली डाली, पत्ता पत्ता 
वसुधा का अंग अंग है भीगा
काली कजरारी आँखों में
प्रेम का सुन्दर रंग है दिखा
सुर्ख भीगे अधरों पर 
नाम प्रीत का आकर टिका
अम्बर सा विस्तार पिया, साकार होती दिल की उम्मीदें  
जाग उठा अंदर का मौसम, अब तक था जो अँखियाँ मूंदे 


LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...