बुधवार, 29 जनवरी 2014

आज नया कुछ गढ़ जाएँगे

(फोटो गूगल से साभार)



कुछ सीमाएँ तुम तोड़ो 
कुछ सीमाएँ मैं तोडूँ  
चलो शून्य को बढ़ जाएँगे 
​​आज नया कुछ गढ़ जाएँगे 

रात की काली चादर हटा दें 
जर्रे जर्रे को बता दें 
प्रणय प्रीत की धुन लिए 
उन्मुक्त हवा सी बह जाएँ 
उच्च गगन की पीड़ा को 
आज धरा को कह जाएंगे 
आज नया कुछ गढ़ जाएँगे 

देख दिखावे की उलझी रस्में 
हम क्यूँ इनमे उलझे जाएं 
बस जो सुंदर और सही है 
हम उनमें बस घुल मिल जाएँ 
वाद विवाद में क्या है पड़ना 
सुखद संवादों में बह जाएंगे 
आज नया कुछ गढ़ जाएँगे 

पीड़ा की अन्तःपीड़ा को 
जाने कौन समझ पाएगा 
झूठी मुस्कानों के बदले 
खुशियाँ कौड़ी बिक जाएगा 
द्वंद्व अंतर्द्वंद्व के चक्रव्यूह को 
क्यूँ ना हम भेद पाएँगे 
आज नया कुछ गढ़ जाएँगे 

कुछ सीमाएँ तुम तोड़ो 
कुछ सीमाएँ मैं तोडूँ  
चलो शून्य को बढ़ जाएँगे 
​​आज नया कुछ गढ़ जाएँगे


रविवार, 5 जनवरी 2014

प्रेम का कभी अंत नहीं




(फोटो गूगल से साभार)


सावन भादो सब भीगा
मन कतरा कतरा भीगा
रात का तनहा आकाश
कभी आधा
तो कभी पूरा चाँद भीगा

मोहन मुरली बन बजा
फूलों की इक सेज सजा
राधिके के आगमन को
यमुना तट पर, बन गीत बजा

शशि ज्यों आ जाता नित
संध्या के आकाश पर
निज मन उदित होता हर रोज
पूर्ण प्रेम की आश पर

अथाह समंदर गहरा जा डूबा
सूरज सा फिर उगने को
प्रेम का कभी अंत नहीं
नहीं रुका कभी रुकने को


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