गुरुवार, 7 नवंबर 2013

शोर जो उगे हैं कुछ उन्हें निकाल रहा हूँ

(फोटो गूगल से साभार)


हल गाड़ दिया जमीन में
कुछ संकल्प उठा रहा हूँ 
शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ
जो आतंकित करते हैं
खा जाते हैं
शुकून के फसल को
उन्हें जलाने की
तैयारी किए जा रहा हूँ

जख्म पर नमक
क्यूँ छिड़कते हैं लोग
नफरत का खेल कैसा
आज खेलते हैं लोग
जो ठान लिया है
मरहम लगाने कि
मरहम लगा रहा हूँ
नफरत का एक पेड़ काटा है अभी
प्रेम का पौधा इक लगा रहा हूँ

शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ

कतरा कतरा पसीने का
बहुत है कीमती 
मगर हवा कुछ बदली है ऐसी 
अब यह मोती
देखने को नहीं मिलती
जो हवाओं की कब मानी है
आज कहीं बैठा
बस पसीना बहा रहा हूँ

शोर जो उगे हैं कुछ
उन्हें निकाल रहा हूँ





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