जो चुनना हो
धूप और छाँव में
चुनूँगा धूप
क्यूँकी छाँव ....
छाँव तो मिथ्या है
बहरुपी है
मगर धूप
धूप का रूप नहीं
अरूप है
सत्य है धूप का अस्तित्व
वह रूप नहीं बदलती
धूप जीवन
भरती है
पेड़ों में
पौधों में
फसलों में
धरा का कण कण
होता पोषित
धूप से
जिसने धूप स्वीकारा
फला फूला
और जो बैठा रहा
छाँव तले
उसे क्या मिला !
सच कहूँ तो
धूप उतनी ही सच्ची है
जितना संघर्ष
और छाँव उतनी ही मिथ्या
जितना सुख
@फोटो: गूगल से साभार
सटीक .... गहन अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंसटीक व् सार्थक अभिव्यक्ति .आभार
जवाब देंहटाएंसच.............
जवाब देंहटाएंधुप चुनें तो छाँव खुद-ब-ख़ुद पास चली आती है...
बहुत गहन भाव..
अनु
धूप जरुरी है जीवन के लिए , छाँव खिंची चली आती है इसके पीछे !
जवाब देंहटाएंसच कहूँ तो
जवाब देंहटाएंधूप उतना ही सच्चा है
जितना संघर्ष
और छाँव उतना ही मिथ्या
जितना सुख
ek bahut bada sach!!! bahut sunder likha hai
सही है, धूप ही परिश्रम का पर्याय है, बहुत ही सुंदर.
जवाब देंहटाएंरामराम.
वाह !!! बहुत लाजबाब सटीक प्रस्तुति,,,
जवाब देंहटाएंRECENT POST: गुजारिश,
गहन भाव लिए सुन्दर रचना..आभार
जवाब देंहटाएंबढिया, बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंधूप जीवन
जवाब देंहटाएंभरता है
पेड़ों में
पौधों में
फसलों में
धरा का कण कण
होता पोषित
धूप से ...............गहरे व सच्चे भावार्थ से अलंकृत सुन्दर कविता।
मिथ्या तो ये भी है की अंधेरा सूरज को लील लेता है या प्रकाश अंधेरे को चीर देता है ...
जवाब देंहटाएंविषय सोचने का है ... पर प्रकाश जीवन ले के आता है प्प्र्जा लाता है ... ये भी सत्य है ...
धूप और छाँव ..दोनों ही ज़रुरी हैं चलते रहने के लिए.
जवाब देंहटाएंछाँव मिथ्या है जैसे सुख क्षणिक होता है.
सच कहूँ तो
जवाब देंहटाएंधूप उतना ही सच्चा है
जितना संघर्ष
और छाँव उतना ही मिथ्या
जितना सुख
सच है न !
और उसी संघर्ष और सुख की आकांक्षा के धूप छाँव के बीच ज़िन्दगी गुजर जाती है.
मगर धूप
जवाब देंहटाएंधूप का रूप नहीं
अरूप है
सत्य है धूप का अस्तित्व
वह रूप नहीं बदलता
बहुत बढ़िया पंक्तियाँ लगी यह,
धुप से अलग कहाँ है छाँव ? उसीको अनुसरण करती है !
आपकी यह रचना बहुत सुन्दर है। मुझकों बहुत ही अच्छा लगा। मेरे तरफ से बहुत बहुत धन्यवाद्!
जवाब देंहटाएंवैसे हम इस सम्बन्ध मे कुछ लिख रहा हूँ -
"सच तो ये हैं कि संधर्ष धुप कि वो किरण हैं जो मुश्किलों को भेदती, असंख्य किरणों से टकराती अपनी मंझिल (धरती) कि तरफ बढती रहती, अन्तत: धरा (मंझिल) पर पहुंचती हैं। इसी प्रकार संधर्ष जीवन के बरा से बरा मुश्किलों से सामना करते हुए अपनी मंझिल की ओर बढती रहती हैं चाहे मुश्किल कितना भी बरा से बरा क्यों ना आ जाय, आगे बढती रहती हैं और अंततः अपने (जीवन के ) मंझिल पर पहुचने में कामयाब होती हैं।"
"धुप और छाव" तो जीवन की दो पहलू हैं जो "सुख एवं दुःख" के नाम से जाना जाता हैं।
ये तो सच हैं की प्राणी सुख को जीवन का मूल आधार मान लेतें हैं, पर करवा सच ये भी हैं की दुःख के बिना सुख का कैसे अनुभव कर सकतें हैं।
आपका दोस्त-
मिथिलेश
सच कहूँ तो
जवाब देंहटाएंधूप उतनी ही सच्ची है
जितना संघर्ष
और छाँव उतनी ही मिथ्या
जितना सुख
.....बहुत सटीक पंक्तियाँ....
विषय सोचने का है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छी रचना..:-)
क्या सुन्दर भाव है साथ ही अर्थ भी..
जवाब देंहटाएंएक पल को छाँव भी ढूँढता है दिल... रिश्तों के स्नेह की छाँव !
जवाब देंहटाएंकाफी सुन्दर कविता
शिवनाथ जी बहुत ही अच्छी कविता लिखी है आपने| बिलकुल सही खा आपने "धूप उतनी ही सच्ची है जितना संघर्ष और छाँव उतनी ही मिथ्या जितना सुख " आप ऐसी ही सुन्दर रचनाएं अब शब्दनगरी पर भी लिख सकते हैं|
जवाब देंहटाएंभारत के इस गांव की कहानी पढाई जाती है विदेश में जैसे लेख पढ़ व् लिख सकते हैं