शुक्रवार, 10 मई 2013

दिया बन जल रहा हूँ रात के किनारे पर ....




दिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर 
पर एक परिधि है मेरी  
जहाँ तक पहुँच कर 
रुक जाता हूँ 
थम जाता हूँ 
और तिमिर आकाश का विस्तार 
मुझे संघर्ष करने को 
मजबूर कर रहा होता है

मैंने आँखें खोल रखी हैं 
मगर कहाँ कुछ दिखता है 
एक सीमा के बाहर

दो अलग अलग दुनिया हैं 
मेरे लिए  
एक दृश्य 
एक अदृश्य ....
(जिसका अपना अस्तित्व है)
मैं किसे अपना जानूँ  
किसे सच मानूँ

जहाँ एक ओर 
शून्य विस्तार पाता जा रहा है 
वहीं मेरी दृष्टि 
(शायद शून्य से भी अधिक विस्तृत)
सीमाओं में सिमटी जा रही है

मैं किसे सच मानूँ 
उस शून्य को 
या फिर अपनी दृष्टि को ?

मैं आज भी ...
दिया बन जल रहा हूँ 
रात के किनारे पर 





@फोटो: गूगल से साभार

16 टिप्‍पणियां:

  1. वहीं मेरी दृष्टि सीमाओं में सिमटी जा रही है.........जीवन विडंबना भाव लिए हुए सुन्‍दर कविता।

    जवाब देंहटाएं
  2. मैं किसे सच मानूँ
    उस शून्य को
    या फिर अपनी दृष्टि को ?

    मैं आज भी ...
    दिया बन जल रहा हूँ
    रात के किनारे पर
    भावमय करते शब्‍द ...

    जवाब देंहटाएं
  3. मैं आज भी ...
    दिया बन जल रहा हूँ
    रात के किनारे पर ,,,,,,बहुत सुन्दर भाव

    जवाब देंहटाएं
  4. वाह...
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....

    अनु

    जवाब देंहटाएं
  5. ये जीवन की विडम्बना भी है और सतत संघर्ष करने की प्रेरणा भी ...
    लाजवाब रचना ...

    जवाब देंहटाएं
  6. दो अलग अलग दुनिया हैं
    मेरे लिए
    एक दृश्य
    एक अदृश्य ....
    (जिसका अपना अस्तित्व है)
    मैं किसे अपना जानूँ
    किसे सच मानूँ
    .............mann ki vidambama ki sunder prastuti......bahut sunder bhavo k sath

    जवाब देंहटाएं
  7. सहजता से कही जीवन के मर्म की गहरी बात
    सुंदर अनुभूति
    बधाई

    आग्रह है पढ़ें "अम्मा"
    http://jyoti-khare.blogspot.in

    जवाब देंहटाएं
  8. मैं आज भी ...
    दिया बन जल रहा हूँ
    रात के किनारे पर

    ....वाह! बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं

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