दिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर
रात के किनारे पर
पर एक परिधि है मेरी
जहाँ तक पहुँच कर
रुक जाता हूँ
थम जाता हूँ
और तिमिर आकाश का विस्तार
मुझे संघर्ष करने को
मजबूर कर रहा होता है
मैंने आँखें खोल रखी हैं
मगर कहाँ कुछ दिखता है
एक सीमा के बाहर
दो अलग अलग दुनिया हैं
मेरे लिए
एक दृश्य
एक अदृश्य ....
(जिसका अपना अस्तित्व है)
मैं किसे अपना जानूँ
किसे सच मानूँ
जहाँ एक ओर
शून्य विस्तार पाता जा रहा है
वहीं मेरी दृष्टि
(शायद शून्य से भी अधिक विस्तृत)
सीमाओं में सिमटी जा रही है
मैं किसे सच मानूँ
उस शून्य को
या फिर अपनी दृष्टि को ?
मैं आज भी ...
दिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर
@फोटो: गूगल से साभार
@फोटो: गूगल से साभार
बढिया, बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंवहीं मेरी दृष्टि सीमाओं में सिमटी जा रही है.........जीवन विडंबना भाव लिए हुए सुन्दर कविता।
जवाब देंहटाएंमैं किसे सच मानूँ
जवाब देंहटाएंउस शून्य को
या फिर अपनी दृष्टि को ?
मैं आज भी ...
दिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर
भावमय करते शब्द ...
मैं आज भी ...
जवाब देंहटाएंदिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर ,,,,,,बहुत सुन्दर भाव
वाह...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति....
अनु
सुन्दर पंक्तियाँ.
जवाब देंहटाएंsundar Abhinyakti...
जवाब देंहटाएंये जीवन की विडम्बना भी है और सतत संघर्ष करने की प्रेरणा भी ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना ...
दो अलग अलग दुनिया हैं
जवाब देंहटाएंमेरे लिए
एक दृश्य
एक अदृश्य ....
(जिसका अपना अस्तित्व है)
मैं किसे अपना जानूँ
किसे सच मानूँ
.............mann ki vidambama ki sunder prastuti......bahut sunder bhavo k sath
bahut bahut acchi likhi hai1
जवाब देंहटाएंसहजता से कही जीवन के मर्म की गहरी बात
जवाब देंहटाएंसुंदर अनुभूति
बधाई
आग्रह है पढ़ें "अम्मा"
http://jyoti-khare.blogspot.in
yakeenan behtareen post..
जवाब देंहटाएंhttp://kuchmerinazarse.blogspot.in/2013/05/blog-post.html
जवाब देंहटाएंThis is very beautiful !!!
जवाब देंहटाएंमैं आज भी ...
जवाब देंहटाएंदिया बन जल रहा हूँ
रात के किनारे पर
....वाह! बहुत सुन्दर और गहन अभिव्यक्ति...
अच्छी लगी..
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