गुरुवार, 28 फ़रवरी 2013

आखिर कब ?

(फोटो गूगल से साभार)



एक 'शाम'
जो छोड़ आया था कोई
समंदर की लहरों पर
सुना है
आज तक वो 'शाम'
ढली नहीं

बाट जोहती किसी की
उच्छश्रृंखल सी
बार बार
डूबते किनारे पर
ढूँढती है निशां
किसी के क़दमों की

सुना है
ज्वार उठता है कभी कभी
खामोश गहराई से
और लहरें बात करती मिलती हैं
खामोश शाम की तन्हाई से 

सवाल एक ही है
आखिर कब
वो 'शाम' ढलेगी
और कब उसे 'मुक्ति' मिलेगी
आखिर कब ?

11 टिप्‍पणियां:

  1. बढ़िया है आदरणीय-
    शुभकामनायें स्वीकारें ||

    जवाब देंहटाएं
  2. वैसी शामों की शब होती नहीं शायद. सुन्दर रचना.

    जवाब देंहटाएं
  3. सुना है
    ज्वार उठता है कभी कभी
    खामोश गहराई से
    और लहरें बात करती मिलती हैं
    खामोश शाम की तन्हाई से

    ....बहुत सुन्दर अहसास और उनकी अभिव्यक्ति...

    जवाब देंहटाएं
  4. तडपते हुवे दिल से रक्खी शाम कैसे ढलेगी ... उसे उसका मुकाम नहीं मिला तो कहाँ जाएगी ..

    जवाब देंहटाएं
  5. लहरों के साथ लौट-लौट आएगी ,डूब कहाँ पायेगी शाम !

    जवाब देंहटाएं
  6. वहा बहुत खूब बेहतरीन

    आज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में

    तुम मुझ पर ऐतबार करो ।

    जवाब देंहटाएं

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