(फोटो गूगल से साभार) |
पीर की गहराई में
दिल की तन्हाई में
ढूँढते खुद को
खुद की परछाई में
'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
मन का आकाश
बादलों से घिरा
शाम पिघल कर आज
दामन में जो गिरा
'दिये' ने रौशनी फैलाई है
गुजरता कारवां सामने
'वो' कुछ इस तरह
आँखों में बरस आई है
करवटे बदलती राहों से
स्याह रात की दीवारों से
निकल कर 'चाँद'
आँगन में बिखरा है
शब्द मूक बह रहे
बह रहा 'वो' गीत
और गीत का टुकड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
http://shivnathkumar.jagranjunction.com/
दिल की तन्हाई में
ढूँढते खुद को
खुद की परछाई में
'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
मन का आकाश
बादलों से घिरा
शाम पिघल कर आज
दामन में जो गिरा
'दिये' ने रौशनी फैलाई है
गुजरता कारवां सामने
'वो' कुछ इस तरह
आँखों में बरस आई है
करवटे बदलती राहों से
स्याह रात की दीवारों से
निकल कर 'चाँद'
आँगन में बिखरा है
शब्द मूक बह रहे
बह रहा 'वो' गीत
और गीत का टुकड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
http://shivnathkumar.jagranjunction.com/
हमको भी रुलायेंगें क्या, दिल के अंदर तक दस्तक देती आपकी ये बोली!
जवाब देंहटाएंबहुत संवेदनशील रचना निशब्द कर दिया आपने आपकी सोंच और लेखनी को नमन
जवाब देंहटाएंअंतर्मन से लिखी संवेदनशील रचना ... लाजवाब ...
जवाब देंहटाएंधन्यवाद सुनील जी,,,, आपकी उत्साहवर्धक टिपण्णी के लिए !!!!!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद दिगंबर जी !!
जवाब देंहटाएंकरवटे बदलती राहों से
जवाब देंहटाएंस्याह रात की दीवारों से
निकल कर 'चाँद'
आँगन में बिखरा है
शब्द मूक बह रहे
बह रहा 'वो' गीत
और गीत का टुकड़ा है
आग लगा दी शिवनाथ जी ,,,,
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
जवाब देंहटाएंहाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
जवाब देंहटाएंकई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
बहुत खूब लिखा है । मनुष्य की कुछ अनछुई अनकही भावनाओ को आपने जिस तरह शब्दों मई पिरोया है काबिले तारीफ है ।
आज पांच लिंकों का आनंद पर पाठक एक भावप्रवण रचना का वाचन कर रहे हैं हो सके तो चर्चा के लिए अवश्य आइएगा। http://halchalwith5links.blogspot.in पुरुषोत्तम जी का चयन सराहनीय है।
जवाब देंहटाएंबहुत भावपूर्ण कविता
जवाब देंहटाएंखुद की परछाई में
जवाब देंहटाएं'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है
वाह ! मन की गहराइयों में छिपे दर्द को क्या ख़ूब उकेरा है सराहनीय रचना आभार। "एकलव्य"