(फोटो गूगल से साभार) |
मैं एक खुली किताब
जिसने भी मुझे पढ़ा
मुझे भिगोता गया
अपने आँसूओं से
जिस वजह से
मेरे शब्द
धुंधले हो गए हैं
मुझे पढ़ने में अब
लोगों को बड़ी मुश्किलें होती है
शब्द , स्पष्ट नहीं दिखते
और कहीं कहीं तो
पूरा का पूरा
पृष्ठ ही धुंधला है
मुझे पढ़ने वाले
अब समझ नहीं पाते मुझे
अनुमान से शब्द अधूरे, पूरे करते हैं
पर वो शब्द 'अधूरा' ही रह जाता है
और शायद 'सत्य' भी
कभी कभी
खुली किताब होना भी
अस्तित्व के लिए
खतरा बन जाता है
जाने अनजाने में ही
बहुत कुछ मिट जाता है
बड़ा ही पीड़ादायक होता है फिर
खुद को संभालना
मैं और क्या कहूँ तुमसे
तुम मुझे ही देख लो !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-10-2018) को "सियासत के भिखारी" (चर्चा अंक-3122) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार !!
हटाएंमर्मस्पर्शी पंक्तियाँ बहुत दिनो के बाद आपको लिखते देखकर खुशी हुई।
जवाब देंहटाएंयादों से उमड़े शब्द और भाव ...बहुत कुछ याद दिला गए ... अच्छी प्रस्तुति
जी शुक्रिया संजय जी :)
हटाएं