कभी कभी
सपनों के बोझ तले
दबी हुई पलकें
खुलना तो चाहती हैं
पर खुल नहीं पाती
खुलना तो चाहती हैं
पर खुल नहीं पाती
असहज, घुटन सी
महसूस होती है
जब लाख कोशिश करने पर भी
पलकें नहीं खुलती
और जब नितांत कोशिशों
के बावजूद
नहीं खुलती हैं पलकें
तो हम छोड़ देते है
प्रयास
हो जाते हैं बिलकुल
शांत और शिथिल
(जो मिथ्या ही है)
घोर अशांति, उथल-पुथल लिए
अन्दर ही अन्दर
घोर अशांति, उथल-पुथल लिए
अन्दर ही अन्दर
पर ना जाने सहसा क्या होता है
हम पलकें खोल बैठे होते हैं
नींद से जाग उठे होते हैं
हम पलकें खोल बैठे होते हैं
नींद से जाग उठे होते हैं
.
.
नींद में ही
(फिर से एक मिथ्य,,, सपने के अन्दर जागता मन)
.
नींद में ही
(फिर से एक मिथ्य,,, सपने के अन्दर जागता मन)
पर जब नींद टूटती है
(सच में जब टूटती है)
और जब होते हैं हम
उस मायाजाल से मुक्त
(सच में जब टूटती है)
और जब होते हैं हम
उस मायाजाल से मुक्त
कितना शुकून होता है
साँसों की गति थोड़ी तीव्र
मगर गहरी होती जाती है
शनैः शनैः
साँसों की गति थोड़ी तीव्र
मगर गहरी होती जाती है
शनैः शनैः
अन्दर ही अन्दर
पर ना जाने क्यों
विश्वास नहीं होता
कि हम नींद से वाकई जाग उठे हैं !
.
.
कहीं फिर से हम
नींद में ही तो नहीं हैं ?
विश्वास नहीं होता
कि हम नींद से वाकई जाग उठे हैं !
.
.
कहीं फिर से हम
नींद में ही तो नहीं हैं ?
@फोटो : गूगल से साभार