कि बचपन ही अच्छा था
हर चीज हर बात
कितनी अच्छी थी
वो वजनदार बस्ते
उतने भी भारी नहीं थे
वो स्कूल में मिले काम
उतने भी मुश्किल नहीं थे
टिफिन में मम्मी के हाथों का बना खाना
मिल बांटकर दोस्तों के संग खाना
कितना अच्छा था
खाने का वह मजा
वह स्वाद सबसे अच्छा था
वह साईकिल का टायर
और किसी लकड़ी से उसे घुमाते हुए दूर तक जाना
कितना अच्छा था
दौड़ते पहियों के संग थके पैर का कभी ना थकना
और एक पूरी दुनिया घूम कर आ जाना
सब कितना अच्छा था
हर त्योहार का इन्तजार करना
उसके आने की उलटी गिनतियाँ गिनना
नए कपडे, स्वादिष्ट पकवान
मम्मी के कामों में थोडा बहुत हाथ बंटाना
और उससे ज्यादा काम बढ़ाना
और बने पकवानों को
थोड़ी थोड़ी देर पर
हाथों में ले
घूम घूम कर खाते रहना
त्योहारों वाला वह मौसम कितना अच्छा था
छुप्पन छुपाई
गिल्ली डंडा
विष-अमृत
ऐसे कितने ही मजेदार खेल खेलना
उन खेलों में जीतना
या फिर हारना भी
कितना अच्छा था
लड़ना, झगड़ना
डांट सुनना
रूठना मनाना
शरारते करना
अपनी बातें मनवाना
गुल्लक में एक एक पैसे जमा करना
उसे फोड़ना फिर गिनना
उन पैसों का कुछ खरीदना
भैया के गुल्लक से चुपचाप पैसे निकालना
फिर आइसक्रीम खाना
पतंगे उड़ाना
कटी पतंगों के पीछे भागना
और भी कितनी बातें
सब कितना अच्छा था
रात में दिया तले
सब भाई-बहनों का
पापा के कहने पर जबरदस्ती बैठना
बहते पसीने में
मद्धिम रौशनी में
कॉपी किताब खोलकर पढ़ना
होम वर्क पूरा करना
कितना अच्छा था
और सबसे अच्छी बात
मम्मी के हाथों की बनी
गरम गरम रोटी खाना
साथ बैठकर
कभी गोद में सर रखकर
कुछ कहानियां सुनना
बातों बातों में
बहुत कुछ सीखना
कभी खुद तो कभी मम्मी का
अपने हाथों से पंखा झलना
वो सब कितना अच्छा था
कई चीजे छूट गईं
कितनी बातें बदल गईं
नहीं बदला तो मम्मी पापा का
हमारे लिए वही स्नेह, वही प्यार
मेरा बचपन आज भी
खेल रहा है उनकी आँखों में
आज बस वही एक चीज तो अच्छी है
पर शायद .....
अब मैं उतना अच्छा नहीं ....
जितना मेरा बचपन !
@फोटो: गूगल से साभार