(फोटो गूगल से साभार) |
कभी कभी ठहर जाता हूँ
आईने के सामने आकर
मेरा प्रतिबिंब नहीं दिखता
दिखता है कुछ और
तीन खीचीं लकीरें
मेरे माथे पर
और आँखों के नीचे
सूनापन लिए गहरा अन्धकार
कुछ और ही
बोल रहा होता है
इतना उदास सा चेहरा
कब हुआ ऐसा !
पता नहीं चला
और क्यूँ !
यह भी अज्ञात
फिर आभास होता है मुझे
कोई पीछे खड़ा है मेरे
मुस्कुराता हुआ
मेरे ऊपर
(शायद 'मैं' ही हूँ )
मैं मिलता हूँ उससे
और अब
आइने में 'मैं' हूँ
कोई और नहीं
.
.
आखिर कौन था वो ?