(फोटो गूगल से साभार) |
झुकी पलकें
बड़ी ख़ामोशी से
लम्हा लम्हा
सहेज रही है
ओस की एक बूंद
आ टिकी है पलकों के कोर पर
और शबनमी हो गयी आँखे
बस बंद ही रहना चाहती हैं
रात शतरंज की बिसात बिछाए
बैठा है
शह और मात के बीच
अभी अभी खामोशी टूटी है
कुछ गिरा है
जमीं पर आकर
जो देखा तो
चाँद बिखरा पड़ा है
टुकड़ों में
और पलकें
अभी भी
झुकी हैं
समेटे कुछ ख्वाब
अपनी परछाईयों में