(फोटो गूगल से साभार) |
पिछली दिवाली पर
कुछ रात उधार लिया था मैंने
केशुओं की कांति
चेहरे का उजाला
आँखों में सजी भावों की रंगोली
सब अद्वितीय था
प्रेम के लिए
प्रेम का श्रृंगार किया था तुमने
और कुछ रात उधार लिया था मैंने
उस रात
हाथ की लकीरें
राहें बनी थीं
और सजे थे
आशाओं के दीये
उन राहों पर
फिर भटकते क़दमों को
अपने क़दमों का साथ दिया था तुमने
और कुछ रात उधार लिया था मैंने
कुछ बातें थी
मौन सी
जो मुखर हुए जा रही थी
दिवाली के आसमां पर बिखरकर
और कुछ लफ्ज थे
जो फुलझड़ियों की तरह
बिखर रहे थे नीचे धरा पर
अपने कुछ हँसते जज्बात दिए थे तुमने
और कुछ रात उधार लिया था मैंने
होता है उजाला अब
मेरा हर दिन
उस रात से
बनती है मेरी हर बात
अब उस रात से
उसे स्वप्न कहो
या कुछ और
गीली धूप, भीगी मुस्कुराहटें
और बहुत कुछ
मिलता है उस रात से
वो रात, अब मैं लौटा नहीं सकता तुम्हें
जो पिछली दिवाली, उधार लिया था मैंने !
धन्यवाद सर
जवाब देंहटाएंसादर आभार !
शानदार रचना ।
जवाब देंहटाएंनोट करने की इच्छा हो रही है ।
सुंदर प्रभावी रचना...मंगलकामनाएँ...
जवाब देंहटाएंसुंदर अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ... शायद वो लौटाने के लिए दिया भी नहीं था उसने ... बांटा था उसे की बाँट सको आगे तुम ... प्रकाश जैसे ...
जवाब देंहटाएंउधार ली हुई रात में न जाने क्या कुछ ......पर सब कुछ प्रेमिल।
जवाब देंहटाएंऐसी उधारी तो कभी पटाई भी नही जा सकती । अनुपम गीत । अनुपम भाव । हदय की गहराइयों से निकले । भावों को पूरी तरह जीते हुए । वाह..।
जवाब देंहटाएंजो पिछली दिवाली, उधार लिया था मैंने !
जवाब देंहटाएंजीवन में कुछ उधार हम चुका भी नहीं पाते-----
http://savanxxx.blogspot.in
तीसरे पारा में "हँसते जज़्बात" की जगह "खिलते जज़्बात" नोट करूं तो आप नाराज तो नहीं होंगे ?
जवाब देंहटाएं:-)
हटाएं