मंगलवार, 19 जुलाई 2016

मन श्रावणी हो उठा है जाग उठा फिर वृंदावन

(फोटो गूगल से साभार)


आँख मिचौली करता बादल
प्रिये, खेल रहा तेरी आँखों में 
अभी अभी बरसा है सावन 
लिपट सिमट तेरी बाहों में
दिन रात किनारे बैठे दोनों, देख रहे यह दृश्य मनभावन
मन श्रावणी हो उठा है, जाग उठा फिर वृंदावन 

बूँद बूँद प्रिये सजा रहा 
चूड़ी कंगन बिंदिया टिकुली 
मेघ घना बालों में उमड़ा
मेह सजी नथनी और बाली
श्रृंगार अनूठा शोभित मुखमण्डल, प्रीत भरे ये रीत नयन 
मन श्रावणी हो उठा है,जाग उठा फिर वृंदावन

मयूर पंख सा विस्तार लिए 
मन मगन आह्लादित है 
चंचला चपला कामिनी रमणी 
दिल देख प्रिये आनन्दित है 
टूट रहा अब हर बंधन जैसे, बँध रहे दो अंतर्मन 
मन श्रावणी हो उठा है,जाग उठा फिर वृंदावन



4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरूवार (21-07-2016) को "खिलता सुमन गुलाब" (चर्चा अंक-2410) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  2. सावन में प्रेम तरंगें उछालें मारने लगती हैं ... मन प्रेम बृन्दावन हो जाता है ...
    सुंदर भावमय रचना ...

    जवाब देंहटाएं

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