(फोटो गूगल से साभार) |
झुकी पलकें
बड़ी ख़ामोशी से
लम्हा लम्हा
सहेज रही है
ओस की एक बूंद
आ टिकी है पलकों के कोर पर
और शबनमी हो गयी आँखे
बस बंद ही रहना चाहती हैं
रात शतरंज की बिसात बिछाए
बैठा है
शह और मात के बीच
अभी अभी खामोशी टूटी है
कुछ गिरा है
जमीं पर आकर
जो देखा तो
चाँद बिखरा पड़ा है
टुकड़ों में
और पलकें
अभी भी
झुकी हैं
समेटे कुछ ख्वाब
अपनी परछाईयों में
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-05-2015) को "झुकी पलकें...हिन्दी-चीनी भाई-भाई" {चर्चा अंक - 1977} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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धन्यवाद सर
हटाएंसादर आभार !! :)
समेटे ख्वाब---
जवाब देंहटाएंअपनी परछाइयों में
बहुत खूबसूरत.
सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन ।
जवाब देंहटाएंइन ख़्वाबों को यूँ ही सजे रहने देना ... तोड़ देता है ज़माना बेरहमी से ...
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना है ...
भावपूर्ण एव हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति।मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
जवाब देंहटाएंअभी अभी खामोशी टूटी है
जवाब देंहटाएंकुछ गिरा है
जमीं पर आकर
बहुत सुंदर तरीके से उतरा ना ...अब कुछ बाकी न बचे कहने के लिए ...अंतिम पंक्तियाँ सब कुछ कह जाती है ...आपका आभार