शनिवार, 21 जून 2014

लम्हा लम्हा जिंदगी का कतरा कतरा जाता है

(फोटो गूगल से साभार)



लम्हा लम्हा जिंदगी का कतरा कतरा जाता है 
अपनी बर्बादी पे कोई गीत ख़ुशी के गाता है 

गरीब की गरीबी मजाक नहीं है कोई  
आँखों में आँसू लिए कोई राम कथा सुनाता है  

टूटे फूलों से कब किसी ने पूछा हाल उसका  
डाल डाल खामोश खड़ा कुछ नहीं कर पाता है  

बड़ा ही मुश्किल है सूरज और चाँद बनना 
तारों की भीड़ में इक तारा कहीं खो जाता है

कैसा दौर जश्न का का आज चल पड़ा है 
रौशनी की महफ़िल में अँधेरा झूमता आता है  



6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (23-06-2014) को "जिन्दगी तेरी फिजूलखर्ची" (चर्चा मंच 1652) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर भावों से युक्त रचना..

    जवाब देंहटाएं
  3. बड़ा ही मुश्किल है सूरज और चाँद बनना
    तारों की भीड़ में इक तारा कहीं खो जाता है

    सुंदर भाव भरे हैं आपने इस रचना में
    बार बार पढ़ा, काफी अच्छा लगा ...!!

    जवाब देंहटाएं

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