मंगलवार, 24 अप्रैल 2012

भूल गए हैं सारे जमाने को

(फोटो गूगल से साभार)
कि महफ़िल से रुखसत हुए
एक खाली पैमाना लेकर
संग अपने दर्द का
झूमता तराना लेकर
भर देता जो बार बार
पैमाने को
खुमार छाया है
कुछ इस कदर
कि भूल गए हैं
सारे जमाने को  

शुक्रवार, 13 अप्रैल 2012

'वो' गीत

(फोटो गूगल से साभार)
पीर की गहराई में
दिल की तन्हाई में
ढूँढते खुद को
खुद की परछाई में
'वो' कुछ बोल पड़ा है
हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है

मन का आकाश
बादलों से घिरा
शाम पिघल कर आज
दामन में जो गिरा
'दिये' ने रौशनी फैलाई है
गुजरता कारवां सामने
'वो' कुछ इस तरह
आँखों
में बरस आई  है

करवटे बदलती राहों से
स्याह रात की दीवारों से
निकल कर 'चाँद'
आँगन में बिखरा है
शब्द मूक बह रहे
बह रहा 'वो' गीत
और गीत का टुकड़ा है

हाँ, 'वो' जो सोया पड़ा था
कई दिनों से
आज तोड़ मौन
बस रो पड़ा है


http://shivnathkumar.jagranjunction.com/

रविवार, 8 अप्रैल 2012

रिक्शावाला

 
     आज शर्मा जी फिर से ऑफिस जाने के लिए लेट हो रहे थे , और इसीलिए रिक्शेवाले को जल्दबाजी दिखाते हुए बोले " क्यों भई , कुछ खाया नहीं क्या .... थोड़ा जल्दी चलो ..... ऑफिस के लिए लेट हो रहा हूँ ... "| रिक्शेवाले ने कुछ नहीं कहा , बस जैसे तैसे रिक्शे को खींचे जा रहा था | अभी १० ही बजे थे फिर भी हवा में गर्मी थी और ऊपर से सूरज की रौशनी भी तीखी हो चली थी , ऐसा लग रहा था मानो ये सब उसका इम्तिहान ले रहे हों | पर पता नहीं उसे इसका एहसास भी था या नहीं | बदन पर एक फटी सी गंजी और कमर पर आधी लिपटी गंदीली सी लूँगी | पसीने से भींगे उसके बदन को देखकर , उसकी स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता था | पर शर्मा जी को ऑफिस जाने की जल्दी थी , सो उन्होंने रिक्शेवाले को थोड़ी तेज गति से रिक्शा चलाने को कहा | वैसे भी वो लगातार ३ दिन से ऑफिस के लिए लेट हो रहे थे और आज .... फिर से लेट नहीं होना चाहते थे | डाकखाने के पोस्टमास्टर ने उन्हें कल ही तो जमकर डाँट लगाई थी | डाँट भी अकेले में लगाते तो चलता , उन्होंने तो ऑफिस के कर्मचारियों के बीच उनकी जमकर ले ली थी .....| यही बात थी कि आज शर्मा जी फिर से लेट नहीं पहुँचना चाहते थे | मन ही मन बुदबुदाए जा रहे थे " कमबख्त ये रिक्शावाला भी ना .... मेरी तो किस्मत ही फूटी है .... आज तो यह मुझे फिर से लेट करवाएगा ...... कमबख्त , थोड़ा तेज चला लेगा तो इसके बाप का क्या चला जाएगा ! " वो अभी इसी सोच में थे कि पता नहीं क्यों रिक्शेवाले का नियंत्रण रिक्शे पे से खो गया और रिक्शा बगल के एक पेड़ से जा टकराया | रिक्शावाला जमीन पर गिरा , बेहोश पड़ा था और शर्मा जी स्तब्ध , आखिर ये सब एकाएक जो हुआ ... | उनकी समझ में कुछ नहीं आया कि आखिर हुआ किया | लोगों की भीड़ जमा हो चुकी थी | लोगों की मदद से , पानी के कुछ छींटे उसके चेहरे पे डाले गए | वह उठा , फिर उसे पास के एक पेड़ के नीचे छाँव में बिठाया गया | कुछ देर तक शांत रहने के बाद शर्मा जी की तरफ मुखातिब होता हुआ बोला "दो दिनों से कुछ ठीक से खाया नहीं साहब ...... बचिया भी बीमार है ..... दिन भर का सारा कमाया धमाया उसके ईलाज और दवा दारु में ही चला जाता है .....सही है कि भगवान भी आजकल अमीरों के लिए ही हैं , हम गरीबों के सब्र का तो वह बस इम्तिहान ही लेता रहता है ....", ऐसा कहते हुए उसके चेहरे पे एक गहरा सवाल लिए उदासी छा गई थी, जिसका जवाब किसके पास था, पता नहीं | ना जाने फिर शर्मा जी को क्या हुआ , उन्होंने उस रिक्शेवाले को बगल के होटल में ले जाकर पहले तो भर पेट भोजन करवाया और फिर कुछ पैसे उसके हाथ में देते हुए बोले "रख लो इसे , जब कभी भी मन करे तो लौटा देना ..." | रिक्शे वाले ने बड़ी कृतज्ञ नज़रों से शर्मा जी की तरफ देखा | दोनों की नज़रों ने पल भर में एक दूसरे की आँखों में कुछ पढ़ लिया था ....| फिर शर्मा जी वहाँ से पोस्ट ऑफिस की ओर पैदल ही चल पड़े |
     आज फिर से लेट होने के कारण , पोस्टमास्टर ने उन्हें फिर से सुनाने शुरू कर दी , पर उन्होंने कुछ जवाब नहीं दिया, ..... शायद पोस्टमास्टर की बातें आज उनतक पहुँच नहीं रही थी | वो अपने टेबल के ओर बढे , कुर्सी पर बड़े इत्मीनान से बैठे, चश्मा उतारा, एक लम्बी साँस लेते हुए आँखें बंद की और फिर गर्दन कुर्सी पर पीछे की ओर झुकाया, थोड़ा आराम कि मुद्रा में ........ फिर हल्की सी मुस्कुराहट लिए किसी सोच में डूबते ही चले गए ........!!

रविवार, 1 अप्रैल 2012

आखिर बन ही गए ....

       (फोटो गूगल से साभार)



आज १ अप्रैल है और जेहन में कुछ यादें ऐसे ही ताजा हुए जा रहीं हैं |  सोचता हूँ कुछ लिख ही डालूँ , और जो बातें मुझे गुदगुदा रही हैं थोडा आपलोगों से भी शेयर कर लूँ |  "अप्रैल फूल".... इस दिन बहुत मजा किया करते थे हमसब | "हमसब" बोले तो मैं और मेरे मित्रगण |  कुछ मजेदार बातें हैं , शायद आपको भी अच्छा लगे | ये अलग बात है कि मैं अपनी मूर्खता का विवरण स्वयं अपने ही मुख से कर रहा हूँ | हाँ, तो मुझे बहुत ही शौक हुआ करता था Fool's  डे पर लोगों को मूर्ख बनाने में, या यूँ कहे कि उन्हें छकाने में |  वैसे तो छोटे मोटे तरीके से तो हम खूब मजा लिया करते थे लेकिन उनमें से एक ख़ास है जो मै आपलोगों को जरुर बताना चाहूँगा | मैंने अपने एक मित्र को कैसे छकाया वो बताता हूँ | मेरे मित्र के पास उस समय मोबाइल नहीं था (ये अलग बात है कि आज अधिकांश लोगों के पास आपको मोबाइल मिल ही जाएगी ) और अक्सर उसके घर से फ़ोन आया करता था, पास के ही एक बूथ पर | फिर बूथ वाला उसे बुलाकर लाया करता था और तब बात हुआ करती थी |  हमने १ अप्रैल को उस बूथ में बैठने वाले बच्चे को कुछ टॉफी दिया और फिर उसे बोला कि जाकर उसे बोले कि उसके घर से फोन आया है | उसने वैसा ही किया | बेचारा वो नींद में सोया हुआ था , दोपहर का समय था | नींद तोड़कर उठा और बूथ पर आ कर बैठ गया और फोन का इंतजार करने लगा | १०-१५ मिनट तक बैठने के पश्चात जब कोई फोन ( सो तो नहीं ही आना था ) नहीं आया तब हमलोग वहाँ पहुंचे ( मैं और मेरा एक अन्य मित्र ) |  उसकी नजर हमपर पड़ी, फिर हमलोग थोडा मुस्कुराए और तब उसे समझते देर नहीं लगी कि वह १ अप्रैल का शिकार बना है |  फिर १ अप्रैल को कोई Fool  बने तो वो  काफी खतरनाक हो जाता है | उसमें भी कहीं न कहीं बदले कि भावना तो जागृत हो ही जाती है | और यह तो सेकेण्ड टाईम था जब उसे हमलोगों ने उसे इस तरह से छकाया था | इस बार तो चैलेंज लगा था कि कोई Fool  बनाकर देख ले |  लास्ट टाईम तो इससे भी बुरा हुआ था | जनाब को अस्पताल के चक्कर कटवा दिए थे दिन भर ( ये भी एक बड़ा ही जबरदस्त वाकया है, १ अप्रैल का), सो इस बार तो वो सतर्क था | फिर भी बन ही गया | अब क्या करें, यही सोचते हुए थोडा मुस्कुराकर हमसब चले और जाकर उसके रूम पर बैठ गए | गप्पें मारने कि आदत थी , सो गप्पे चलने लगीं ... | इधर - उधर कि बातें होने लगी | लेकिन हम भी सतर्क थे कहीं हम भी मूर्ख न बन जाएँ | हमें तो पता था कि हम अलर्ट हैं इसलिए कोई कितना भी चाह ले , अब तो हम मूर्ख नहीं ही बन सकते |  कुछ देर बातें करने के बाद मेरा मित्र नीचे दूकान से कुछ नाश्ता लाने को गया | दूकान बस ५ मिनट की दूरी पर था | वह १०-१५ मिनट में आया |  साथ में कुछ बिस्किट्स और टोफियाँ थी और कुछ नमकीन | हमलोग खाए जा रहे थे और बातें किये जा रहे थे | एक टॉफी हमलोगों को काफी अच्छी लगती थी , वह सफ़ेद रंग का होता था | वह जब भी कुछ लाने जाता था तो वो टॉफी जरुर लाता था  | इसबार भी वह टॉफी वह  लाया था  | सो हमें इसका एहसास भी नहीं था कि अब हमलोग बहुत अच्छी तरीके से मूर्ख बनने जा रहे थे | क्या हुआ होगा, जरा सोचिये ...... शायद आप वो नहीं सोच सकते जो उसने सोचा था | हमलोगों ने जब वो टॉफी मुँह में रखी कि बस हो गया..... उसके आगे हम बिलकुल शांत हो कर एक-दूसरे कि ओर देखने लगे | मेरे दूसरे मित्र ने वह टॉफी पहले ही खा ली थी और अगर वो चाहता तो मुझे बता सकता था कि मत खा पछतायेगा, पर नहीं उसने सोचा कि जब मै मूर्ख बन ही चुका हूँ तो फिर और कोई क्यों बचे | यह तो मानवीय सोच है |  खैर रहने दीजिये, मुख्य बात पर आते हैं कि आखिर उस टॉफी में ऐसी ख़ास बात क्या थी कि हम मूर्ख बन गए | तो बात यह थी कि मेरे मित्र महोदय ने दूकान जाने के बहाने पहले तो सफ़ेद मोमबती खरीदी और एक दूसरी जगह जाकर उसे पीसकर उसको उस टॉफी के आकार में इस तरह से ढाला कि कोई भी नहीं पहचान सकता था कि यह सफ़ेद रंग वाली वही टॉफी नहीं है जो हम प्रायः खाया करते थे |  और यह सब इतनी तेजी से किया कि हमें जरा सा भी शक नहीं हुआ कि उसने ऐसा कुछ किया है |  तो फिर क्या था , मुँह में लेने के बाद , थोड़ी देर के लिए हमारा मुँह तो लटक गया लेकिन मेरे मित्र का चेहरा खिल गया | आखिर इतने जबरदस्त तरीके से बदला लिया था पूरे सूद सहित | बाद में हमने उसकी चतुराई और उसके प्रयास के लिए बुझे मन से बोला "मान गए भाई, हमने सोचा भी नहीं था इस बारे में, बाहर किसी को मत बताना, अपनी तो इज्जत ही चली जाएगी "। फिर थोड़ी देर बाद, हमसब रूम से निकल पड़े , अगले शिकार की तालाश में ....... ;)

LinkWithin

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...